विद्या-धन
श्वेत-वर्ण है ब्राह्मणी, क्षत्राणी है लाल।
पीली धरा महाजनी, काली समझो काल।।
काली समझो काल, दे मदिरा जैसी गंध।
इसका कड़वा स्वाद, करे ना कोई पसंद।।
कह ‘वाणी’ कविराज, विद्या-धन फूले- फले।
बने कहीं कालेज, श्रेष्ठ भू श्वेत-वर्ण है।।
शब्दार्थ: काल = मृत्यु, काली = काले रंग की मिट्टी, फूले-फले = सुखद फल प्राप्त होए
भावार्थ:
रंग की दृष्टि से भूमि चार प्रकार की होत है। श्वेत-वर्णब्राह्मणी, रक्त-वर्णक्षत्राणी,पीत-वर्ण महाजनी और श्याम-वर्णी भूमि शूद्रा कहलाती है। शूद्रा भूमि की मदिरा जैसी गंधव कड़वा स्वाद होने से इसे कोई भी पसंद नहीं करता। निर्माण कार्य हेतु अनुपयोगी यह श्यामा भूमि कृषि-कार्य हेतु श्रेष्ठ होती है।
‘वाणी’ कविराज कहते हैं कि धर्म, विद्या व कला के अधिकतम् प्रचार-प्रसार हेतु, अर्थात् मंदिर, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, पुस्तकालय, अनुसंधान-भवन, विज्ञान-भवन आदि के सफलतम् स्वरूप हेतुश्वेतवर्णी ब्राह्मणी भूमिही सर्वश्रेष्ठ होती है।
वास्तु शास्त्री : अमृत लाल चंगेरिया
2 टिप्पणियां:
सुन्दर पोस्ट।धन्यवाद।
अच्छी जानकारी!
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